ग़ज़ल रात भर





ग़ज़ल
डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी

करता रहा मैँ क़ाफिया पैमाई रात भर
बजती थी मेरे ज़ेह्न मेँ शहनाई रात भर

आई जो उसकी याद तो आती चली गई
एक लमहा मुझको नीँद नहीँ आई रात भर

बरपा था मेरे ज़ेह्न मेँ एक महशरे ख़याल
उसने बना दिया मुझे सौदाई रात भर

कितना हसीँ था उसका तसव्वुर न पूछिए
सब्र आज़मा रही मुझे तनहाई रात भर

मैँ छेडता था उसको तसव्वुर मेँ बार बार
रह रह के ले रही थी वह अंगडाई रात भर

मैँ देखता ही रह गया जब आई सामने
मुझ मेँ नहीँ थी क़ूवते गोयाई रात भर

मैँ दमबख़ुद था देख के उसका वफ़ूरे शौक़
वह मुझ को देख देख के शरमाई रात भर

बातोँ मे उसकी आगया मैँ और कहा कि जाओ
मैँ फिर मिलूँगी उसने क़सम खाई रात भर

यह जानते हुए भी कि वादा शिकन है वह
मैँ मुंतज़िर था चलती थी पुरवाई रात भर

करता रहा मैँ उसका कई दिन तक इंतेज़ार
लेकिन वह ख्वाब मेँ भी नहीँ आई रात भर

बर्क़ी नेशाते रूह था मेरा जुनूने शौक़
मैँ कर रहा था अंजुमन आराई रात भर

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